Read this article in Hindi to learn about the eight main steps involved in farming. The steps are: 1. Tillage 2. Sowing 3. Mannuring 4. Irrigation 5. Interculture 6. Plant Protection 7. Harvesting 8. Storage.
Step # 1. जुताई (Tillage):
देशी हल, ट्रेक्टर अथवा मिट्टी पलटने वाले यंत्र से खेत की जताई की जाती है । जुताई में खेत की मिट्टी पलट दी जाती है अर्थात् नीचे की मिट्टी ऊपर आ जाती है । जुताई से मिट्टी के बड़े-बड़े ढेले ऊपर आ जाते हैं । फसलों की अधिक पैदावार के लिए जुताई प्रथम चरण है ।
हेरोइंग:
जुताई के पश्चात् खेत के बडे ढेलों एवं फसल के अवशेषों को तोडने के लिए हेरो नामक यंत्र का उपयोग किया जाता है । इसका मुख्य कार्य मिट्टी को भुरभुरा बनाना है ।
समतलीकरण:
मिट्टी को भुरभुरा बनाने के पश्चात् पटेला नामक यंत्र से समतल कर लिया जाता है । समतलीकरण से मिट्टी में नमी को सरक्षित रखा जा सकता है ।
बीजों का चयन:
अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए स्वस्थ बीजों का चुनाव आवश्यक है । बीज एक निषेचित बीजाण्ड है जो पूर्ण रूप से भ्रूण को ढके रहता है । बीज में भोजन संचित रहता है । सामान्यत: बीजों में धूल, खरपतवार, अन्य फसल के बीज, बीमारियों से पस्त बीज आदि मिले रहते हैं । अच्छे बीज स्वस्थ वजनदार चमकदार होते हैं ।
बीजों की अंकुरण क्षमता भी 70-90 प्रतिशत होना चाहिए अर्थात् 100 बीज बोने पर 70-90 बीजों में अंकुरण होना चाहिए । विभिन्न फसलों की जीवन क्षमता अलग-अलग होती है । बीजों के रूप-रंग आकार तथा आकृति में समानता होनी चाहिए ।
Step # 2. बुआई (Sowing):
खेत (मिट्टी) की तैयारी तथा बीजों के चयन के बाद मिट्टी में बीजों को डालना बुआई कहलाता है । बुआई हेतु दुफन एवं सीडड्रिल नामक यंत्रों का प्रयोग किया जाता है । बुआई में उचित गहराई का ध्यान रखना चाहिए ।
अधिक गहराई पर बोये गए बीज नमी तथा वायु की कमी के कारण अंकुरित नहीं होते एवं कम गहराई पर बोये गए बीजों को पक्षियों द्वारा खाकर नष्ट कर दिया जाता है । पौधे एवं पंक्तियों की आपसी दूरी भी महत्वपूर्ण है । पास-पास बोने पर फसल घनी हो जाएगी तथा पौधों को पर्याप्त स्थान प्रकाश तथा भोजन नहीं मिल सकेगा दूसरी ओर यदि पौधे एवं पंक्ति की दूरी अधिक हो गई तो उपज पर प्रभाव पड़ता है ।
बीजों की बुआई दो विधियों द्वारा की जाती है:
1. सीधे खेत में बोना ।
2. नर्सरी से पौधरोपण द्वारा ।
सीधे खेत में बीज बोने की मुख्य विधियाँ इस प्रकार हैं:
(a) छिटकवां विधि:
इस विधि में बीजों को खेत में छितरा कर बुआई करते हैं । इस विधि में समय, श्रम एवं धन की बचत होती है । ज्वार, बाजरा, मक्का, बरसीम आदि फसलों की बुआई छिटकवा विधि द्वारा की जाती है । इस विधि में किसी उपकरण की आवश्यकता नहीं होती । यह वैज्ञानिक विधि नहीं है ।
(b) बीज बेधक द्वारा (डिबलर):
इस विधि में बीजबेधक का उपयोग किया जाता है । इसके द्वारा बीजों को पंक्ति में बोते हैं । यह बुआई की वैज्ञानिक विधि है । इस विधि में उचित स्थान मिलने के कारण पौधों की वृद्धि ठीक होती है । आजकल इस विधि से सभी फसलों की बुआई की जाती है ।
बीजबेधक बीजों को मिट्टी में एक निश्चित गहराई में बोने में सहायक होते हैं । इससे पक्षियों द्वारा बीजों की क्षति होने की संभावना नहीं रहती । किसी सरल बीजबेधक में एक लम्बी नली होती है जिसके ऊपरी सिरे पर कीप लगी होती है । इसे हल के पीछे बाँध देते हैं । बीजों को कीप में डाला जाता है । नली से होते हुए बीज खेत में बने हुए गड्ढों में चले जाते हैं ।
(c) पौध रोपण द्वारा:
इस विधि में फसलों को सीधा खेत में न बोकर पहले नर्सरी (पौधाघर) में बोया जाता है तथा निश्चित अवस्था पर खेतों में स्थानांतरित कर दिया जाता है । टमाटर, बैगन, मिर्ची एवं धान आदि को पौधरोपण (Transplanting) विधि द्वारा उगाया जाता है । इस विधि का एक प्रमुख लाभ है कि प्रारंभिक अवस्था के रोगों का निदान नर्सरी में ही हो जाता है तथा स्वस्थ पौधे ही खेत में रोपे जाते हैं ।
Step # 3. खाद डालना (Mannuring):
मिट्टी से फसलों को खनिज पोषक तत्व मिलते हैं । यह पोषक तत्व फसल की वृद्धि के लिए आवश्यक हैं । खेत में अनेक बार फसल उगाने से मिट्टी के पोषक तत्वों में कमी आ जाती है । मिट्टी में पोषकों की पुन: पूर्ति के लिए खेतों में खाद डाली जाती है ।
खाद कार्बनिक पदार्थों का मिश्रण है । पौधों तथा जानवरों के अपशिष्ट जैसे: गोबर, बेकार शाक-सब्जियाँ, पौधे-पत्तियाँ तथा अन्य जैव अवशेष से प्राप्त कार्बनिक पदार्थ खाद कहलाते हैं । इन अपशिष्ट पदार्थों को एक गड्डे में एकत्रित करके मिट्टी से ढक दिया जाता है तथा सूक्ष्मजीव व्यर्थ पदार्थों को कार्बनिक पदार्थों में अपघटित कर देते हैं । इस प्रकार तैयार की हुई खाद कम्पोस्ट कहलाती है ।
खाद के अतिरिक्त कुछ रसायनों का भी उपयोग किया जाता है जिन्हें उर्वरक कहते हैं जैसे: यूरिया, अमोनियम सल्फेट, सुपर फॉस्फेट तथा पोटेशियम सल्फेट । ये मिट्टी को विशिष्ट पोषक तत्व नाइट्रोजन फॉस्फोरस तथा पोटेशियम प्रदान करते हैं ।
उर्वरक जल में घुलनशील होते हैं तथा पौधों की जड़ों द्वारा आसानी से अवशोषित हो जाते हैं । फसलों की पैदावार बढ़ाने के लिए उर्वरकों का प्रयोग किया जाता है । खाद का उपयोग कर उगाई हुई फसलें विशेष रूप से फल एवं सब्जियों को रासायनिक उर्वरक द्वारा उगाई गई फसलों की अपेक्षा अधिक सुरक्षित माना जाता है ।
Step # 4. सिंचाई (Irrigation):
पौधों को जीवित रहने के लिए जल की आवश्यकता होती है । फसल के उत्पादन के लिए जल अत्यधिक आवश्यक है । पौधों को जिन पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है वे पानी में घुलकर जड़ों द्वारा पौधों के विभिन्न भागों तक पहुंचते हैं । प्रकाश संश्लेषण प्रक्रिया में भी जल एक महत्वपूर्ण घटक है ।
वाष्पोत्सर्जन या उत्सवेदन द्वारा हुई जल की हानि की पूर्ति एवं खाद्य पदार्थों के स्थानान्तरण के लिए जल की आवश्यकता होती है । मृदा का ताप भी जल द्वारा नियंत्रित होता है । अच्छी फसल उत्पादन या अच्छी पैदावार के लिए फसलों को कृत्रिम रूप से पानी देना ही सिंचाई है । बुआई से पूर्व खेतों की सिंचाई की जाती है जिससे जुताई आसान हो जाती है ।
सिंचाई की मात्रा एवं समय जलवायु, फसल एवं मिट्टी के प्रकार पर निर्भर करता है । साधारणत: बरसात में सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है । जाड़े में साप्ताहिक अन्तर से एवं गर्मी में दो या तीन दिनके अन्तर से सिंचाई की जाती है । इसी प्रकार फसल विशेष पर भी सिंचाई की मात्रा का प्रभाव पड़ता है ।
जैसे धान एवं गन्ना में अधिक सिंचाई की आवश्यकता होती है एवं सरसों, चना, अलसी आदि में कम सिंचाई की आवश्यकता होती है । इसी प्रकार मिट्टी के प्रकार पर भी सिंचाई की दर निर्भर करती है । जैसे बलुई मिट्टी की जलधारण क्षमता सबसे कम होने के कारण अधिक सिंचाई की आवश्यकता होगी । इसके विपरीत चिकनी काली मिट्टी की जलधारण क्षमता अधिक होने के कारण कम सिंचाई की आवश्यकता होगी ।
सिंचाई की विधियाँ:
सिंचाई की विधि का चयन भूमि की दशा, फसल विशेष, सिंचाई स्रोत तथा जलवायु के आधार पर किया जाता है । सिंचाई की सबसे उपयुक्त विधि वह होती है जिसमें जल की क्षति कम हो तथा जल पर नियंत्रण रखा जा सके । फसल को क्षति से बचाने के लिए खेतों से अतिरिक्त जल का निकास आवश्यक है ।
सिंचाई के स्रोत:
कुओं, नदी, नहर, तालाब, झील आदि सिंचाई के प्रमुख स्रोत हैं ।
सिंचाई के साधन:
रहट, ढेकली, चरस आदि पुराने सिंचाई के साधन हैं । टयूबवेल, स्प्रिंकलर सिंचाई के प्रमुख आधुनिक साधन हैं ।
Step # 5. निंदाई (Interculture):
खेतों में फसली पौधों के साथ-साथ कुछ अवांछनीय पौधे भी उग आते हैं जो कि मुख्य फसल के साथ भोजन स्थान एवं जल का बँटवारा करके फसल को प्रभावित करते हैं । इन अवांछनीय पौधों को खरपतवार कहते हैं ।
इनकी रोकथाम के लिए खुरपी से इन पौधों को निकालना ही निंदाई कहलाता है । खेत में बीजों की मात्रा अधिक हो जाने पर भी पौधों को उखाड़ लेते हैं जिससे कि सही उपज प्राप्त हो सके । निंदाई से सख्त हुई मिट्टी की पपड़ी टूट जाती है जिससे मिट्टी में जल एवं वायु का संचरण भली प्रकार हो जाता है ।
खरपतवार को कुछ रसायनों द्वारा भी नियंत्रित किया जा सकता है । ऐसे रसायन खरपतवार नाशी कहलाते हैं । खेतों में इनका छिड़काव किया जाता है (चित्र 14.10) । यह रसायन खरपतवार को नष्ट करने में प्रभावी हैं । ये फसल को कोई हानि नहीं पहुंचाते ।
इन खरपतवार नाशियों को जल में घोल बनाकर छिड़काव किया जाता है । खरपतवार के पुष्पण एवं बीज बनने से पहले खरपतवार नाशी का छिड़काव करते हैं । खरपतवार नाशी मनुष्य सहित अन्य जीवों के लिए हानिकारक हो सकते हैं ।
Step # 6. फसल की रक्षा (Plant Protection):
फसल की रक्षा से तात्पर्य विभिन्न फसलों को फलों को तथा संग्रहित अनाजों को हानि पहुँचाने वाले रोग कीट व अन्य हानिकारक जीवों तथा खरपतवारों को नष्ट या कम करना है ।
फसलों को नुकसान पहुँचाने वाले विभिन्न कारक एवं उनका निदान निम्नानुसार किया जा सकता है:
1. पक्षी, टिड्डे एवं अन्य कीट भी फसल को हानि पहुँचाते हैं । ये खेतों में खड़ी हुई फसल के बडे हिस्से को चुग जाते हैं । चिड़ियों को उड़ाने के लिए काक भगोड़ा (पुतला) खड़ा करके तथा ढोल बजाकर भगाया जाता है ।
2. फसल को सर्वाधिक हानि पीड़क पहुँचाते हैं । कीट, चूहे तथा पक्षी कुली कुछ सामान्य पीड़क हैं ।
इनसे सुरक्षा के लिए रसायनों का छिड़काव करते हैं । इन रसायनों को पीड़कनाशी कहते हैं । फसल पर पीड़कनाशी का छिड़काव किया जाता है । छिड़काव उचित समय पर उचित मात्रा में करना चाहिए ।
पीड़कों के नियंत्रण के लिए रसायनों के प्रयोग से कई नुकसान भी होते हैं जैसे:
i. रसायनों के प्रयोग से हानिकारक के साथ-साथ लाभदायक कीट भी नष्ट हो जाते हैं ।
ii. कीटनाशकों से वातावरण प्रदूषित होता है ।
iii. कीटनाशक छिड़काव से पत्तियों एवं फलों पर भी जम जाते हैं । अत: फलों एवं सब्जियों को खाने से पूर्व भली-भाँति धो लेना चाहिए ।
पादप सुरक्षा के लिए कीटनाशी, फफूँदनाशी एवं शाकनाशी दवाओं का छिड़काव विभिन्न प्रकार के स्प्रेयर एवं डस्टर द्वारा किया जाता है । फसलों को नुकसान पहुँचाने वाली कीट की लार्वा अवस्था है जो कि जड़, तना, पत्ती, फल आदि को खाकर नष्ट करते हैं ।
Step # 7. फसल की कटाई (Harvesting):
फसल के पकने के बाद उत्पाद को काटने की विधि को कटाई कहते हैं । छोटे स्तर पर हँसिया से कटाई की जाती है जबकि बड़े स्तर पर मूवर, रीपर एवं कम्बाइन हार्वेस्टर से की जाती है । खरीफ की फसल जैसे: धान, ज्वार, बाजरा, मक्का आदि की कटाई सितम्बर-अक्टूबर माह में की जाती है जबकि रबी की फसल जैसे: गेहूँ, चना, सरसों आदि की कटाई मार्च-अप्रैल माह में की जाती है ।
हमारे देश में कटाई के समय को उत्सव के रूप में मनाते हैं । हार्वेस्टर द्वारा कटाई होने पर खेत में पौधों के निचले भाग शेष रह जाते हैं इनको जलाना नहीं चाहिए क्योंकि इससे प्रदूषण फैलता है । इसलिए उन्हें खेत में ही जोत देना चाहिए । कटाई के बाद फसल को थ्रेसिंग विधि द्वारा दाना एवं भूसा अलग कर दिया जाता है ।
Step # 8. भण्डारण (Storage):
फसल की कटाई एवं थ्रेसिंग के बाद प्राप्त अनाज का भण्डारण एक महत्वपूर्ण कार्य है । अनाज के अलावा प्राप्त भूसा पशुओं के चारे तथा खाद बनाने में उपयोग किया जाता है । अनाज, सब्जियाँ तथा फलों का भण्डारण करके पूरे वर्ष तक इनकी आपूर्ति सुनिश्चित की जा सकती है ।
भण्डार के पूर्व खाद्यानों को भली प्रकार धूप में सुखाया जाता है । अनाजों में लगभग 16-18 प्रतिशत जल होता है । नमी की दशा में सूक्ष्मजीवों की संख्या में वृद्धि हो जाती है जो कि अनाज को हानि पहुंचाते हैं ।
अनाज का भण्डारण जूट के बोरों, धातु के बड़े पात्र अथवा कोठियों में करते हैं । अनाज को चूहों तथा पीड़कों से सुरक्षा के लिए उन्नत भण्डारों तथा साइलों का उपयोग किया जाता है । कवक पीड़कों से सुरक्षा के लिए इन भण्डारों में नमी तथा तापमान नियंत्रित किया जा सकता है । सरकार द्वारा खाद्यान्न का भण्डारण भारतीय खाद्य संस्थान (F.C.I.) के माल गोदामों में केन्द्र तथा राज्य सरकार द्वारा किया जाता है ।
फसलों में सुधार के उपाय:
देश की बढ़ती जनसंख्या एवं खेती के कम होते क्षेत्र के दबाब के कारण फसल उत्पादन बढ़ाना जरूरी हो गया है । वर्तमान में हमारे देश की जनसंख्या लगभग एक अरब से अधिक है और इस जनसंख्या के लिए अधिक अनाज की आवश्यकता होगी । इसलिए फसलों में सुधार का महत्व अधिक है । फसल सुधार के तहत सीमित क्षेत्र में अधिक उत्पादन हो सके ।
इस हेतु निम्न प्रयास आवश्यक हैं:
i. कीटरोधी, रोगरोधी, उन्नत किस्मों के बीजों का चयन करना चाहिए ।
ii. अधिक उपज देने वाली किस्मों का चयन करना चाहिए ।
iii. बुआई सही समय उचित दूरी एवं उचित गहराई पर करना चाहिए ।
iv. बीज को उपचारित कर बोना चाहिए ।
v. खाद एवं उर्वरकों का समुचित प्रयोग हो ।
vi. फसल की आवश्यकता के अनुसार सिंचाई करना चाहिए ।
vii. खरपतवार नियंत्रण के लिए निदाई-गुड़ाई समय पर करना चाहिए ।
viii. कीटनाशी, फफूँदनाशी दवाओं का आवश्यकतानुसार उचित समय पर छिड़काव करना चाहिए ।
ix. अनाज का भण्डारण उचित मानकों पर करना चाहिए ।