Read this article in Hindi to learn about animal husbandry and fisheries.
हमें जीवित रहने एवं दैनिक कार्यों के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है । ऊर्जा हमें भोजन से मिलती है । हमें वनस्पति (पौधे) एवं जन्तुओं दोनों से भोज्य पदार्थ प्राज होते हैं । हम उन सभी जंतुओं को पालते हैं जिनसे हमें खाद्य पदार्थ प्राप्त होते हैं । पशुओं को उचित भोजन, आवास एवं देखभाल की आवश्यकता होती है ।
दुग्ध उत्पादन (Milk Production):
दूध को सम्पूर्ण आहार माना जाता है । दूध में शरीर के लिए आवश्यक सभी पोषक तत्व उपस्थित रहते हैं । भैंस के दूध में वसा की मात्रा अधिक एवं गाय के दूध में कम होती है । दूध में वसा, प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, विटामिन्स एवं खनिज लवण तथा जल पाया जाता है ।
इसीलिए दूध को सम्पूर्ण आहार माना जाता है । हमारे देश में दूध देने वाले पशु गाय तथा भैंस को बड़े स्तर पर डेयरी फार्म में पालते हैं । दुधारू पशुओं के पालन के लिए उनके भोजन रखरखाव आश्रय एवं रोगों से बचाव की आवश्यकता होती है । पशुओं के भोजन में भूसा, चारा, घास, खली तथा अनाज, दलिया भी दिया जाना चाहिए ।
सामान्यत: चारा सुबह-शाम दूध दुहने से पहले दिया जाता है । पशुओं को पर्याप्त भोजन के साथ-साथ उनके शरीर की स्वच्छता की भी आवश्यकता है । पशुओं का आवास स्वच्छ, हवादार एवं पर्याप्त प्रकाशवान होना चाहिए ।
पशुओं को कीटों मच्छर, जूँ, मक्खियों व अन्य कीटों से बचाना चाहिए । आवास में मल-मूत्र निकास की उचित व्यवस्था होना चाहिए । आवास की नियमित सफाई की जाना चाहिए जिससे पशु स्वस्थ रह सकें ।
पशुओं में सामान्यत: निन्नलिखित रोग पाए जाते हैं:
1. मुँह तथा खुर के रोग:
यह एक संक्रामक रोग है । यह रोग विषाणुओं के द्वारा होता है । इस रोग में मुंह, खुर में छाले पड़ जाते हैं, तेज बुखार तथा कभी-कभी कंपकंपी भी होती है और मुँह से लार टपकती है । पशु लगड़ा कर चलता है ।
2. ऐन्थ्रेक्स:
यह रोग जीवाणुओं से होता है । यह रोग पशुओं में तीव्रता से फैलता है । यह पशुओं के लिए घातक होता है ।
3. कृमिजनित रोग:
कभी-कभी परजीवी कृमि द्वारा पशुओं में रोग उत्पन्न हो जाते हैं ।
रोगों का उपचार:
i. खुर रोग के उपचार में फुटबाथ या पैर डुबकी का उपयोग किया जाता है ।
ii. बीमारियों के प्रतिरोधक टीके सभी पशुओं को लगाना चाहिए ।
iii. पशु चिकित्सक द्वारा नियमित जाँच करवाना चाहिए ।
iv. रोगी पशुओं को अलग कर देना चाहिए ।
v. रोगी पशु के मल, मूत्र, झूठन को गड्डा खोदकर गाड़ देना चाहिए ।
दुग्ध उत्पादन की पूर्ति के लिए उन्नत नस्ल के पशुओं को पालना चाहिए । जैसे:
1. गाय की देशी नस्ल:
साहिवाल, सिन्धी, देवनी, गिरि ।
2. गाय की विदेशी नस्ल:
होल्सस्टीन, फ्रेजियन ।
3. भैंस की नस्लें:
मुर्रा, मेहसाना, सुखी, जीली ।
जानवरों में प्रजनन वांछित लक्षणों को प्राप्त करने की दृष्टि से कराया जाता है । संकरण द्वारा गाय तथा भैंसों की उनत नस्लें विकसित की गई हैं । इस प्रक्रिया में अधिक दूध देने वाली नस्ल का कम दूध देने वाली नस्ल के बीच संकरण कराया जाता है । गायों की उच्च उत्पाद वाली किस्में फ्रेजियन-साहीवाल, होल्सस्टीन-फ्रेजियन तथा भैंसे मुर्रा अधिक दूध देने वाले पशु हैं । अब उन्नत नस्लों की रोगरोधी क्षमता में भी सुधार हुआ है ।
दूध की शुद्धता की जाँच:
सामान्यत: दूध में जल की मात्रा ज्ञात करने के लिए दूध में उंगली डालकर बाहर निकालते हैं । यदि दूध उंगली से शीघ्रता से बह जाता है तो उसमें पानी की मात्रा होगी अन्यथा दूध उंगली से चिपक जाएगा ।
डेयरी पर दूध की शुद्धता लेक्टोमीटर (दुग्धमापी) नामक यंत्र से मापी जाती है ।
कुक्कुट पालन (Poultry Farming):
अण्डे एवं माँस के लिए मुर्गी, बतख एवं अन्य पक्षियों को पालना ही कुक्कुटपालन या पोल्ट्री फार्मिंग कहलाता है । मुर्गी जैसे कुक्कुट पक्षियों को घरों तथा बड़े कुक्कुट फार्म दोनों में ही पाला जाता है ।
अण्डा एवं मांस प्रोटीन के सस्ते एवं सुलभ साधन हैं । अण्डे में प्रोटीन के साथ विटामिन्स एवं खनिज लवण भी पाए जाते हैं । प्राकृतिक रूप में मुर्गी अण्डे पर बैठकर 21 दिन तक उसे सेती है तब उसमें से चूजे (मुर्गी के बच्चे) बाहर निकलते हैं । इस अवधि को ऊष्मायनकाल कहते हैं ।
इससे अण्डे को अपेक्षित नमी तथा उधाता प्राप्त होती है जो अण्डे में भूण के विकास एवं अण्डों के स्फटन में सहायक है । इस प्रक्रम को प्राकृतिक स्फुटन कहते हैं । अण्डे सेने का कार्य ऊष्मायित्र (इन्क्यूबेटर) नामक यंत्र में किया जाता है । चूजों से ब्रायलर तीन माह में तैयार हो जाते हैं जबकि छ: माह की आय में मर्गी अण्डे देने शरू कर देती है । माँस हेत मुर्गे को ब्रायलर तथा अण्डे देने वाली मुर्गी को लेयर कहते हैं । चूजों का पालन पोषण व्रूडर नामक यंत्र में किया जाता है ।
कुक्कुट आवास एवं आहार:
i. मुर्गियों का आवास ऊँचे स्थान पर जहाँ पानी न भरता हो बनाना चाहिए ।
ii. मुर्गी का आवास पक्का तथा जालीदार हो जिससे पर्याप्त हवादार, प्रकाश, धूप, सफाई व सुरक्षा की व्यवस्था हो सके ।
iii. आवास गृह में पक्षियों के बैठने, झूलने एवं उनके आहार, पानी व अण्डा देने के स्थान की उचित व्यवस्था होनी चाहिए ।
iv. कुक्कुट आहार में बालू अथवा छोटे-छोटे कंकड मिलाते हैं । सामान्यत: इनके आहार में चूना पत्थर का चूरा भी मिलाते हैं । इसमें कैल्सियम कार्बोनेट की प्रचुरता होती है जो अण्डों के कवच बनाने में सहायक है ।
v. आहार में बाजरा, मक्का, गेहूँ की चौकर आदि का प्रयोग करते हैं ।
vi. इन्हें नांद में जल की पर्याप्त मात्रा दी जाती है । यदि मुर्गियों को जल की मात्रा कम मिलेगी तो उनकी अण्डे देने की क्षमता में कमी आएगी ।
vii. दड़बों में पक्षियों की सुरक्षा का भी पूरा प्रबंध होना चाहिए । विशेष रूप से सर्दियों में खिड़कियों पर पर्दे लगाकर उन्हें सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिए ।
कुक्कुट की नस्लें:
देशी नस्लें:
असील, ब्रह्मा, कोचीन, कड़कनाथ आदि ।
विदेशी नस्लें:
व्हाइट लेग हार्न, प्लाईमाउथ, रोड आईलैण्ड रेड ।
कुक्कुट के रोग:
मुर्गियों में प्रमुख रोग रानीखेत, खूनी दस्त, हैजा, चिकनपॉक्स, पुलोरम आदि प्रमुख रोग हैं । ये रोग विषाणु तथा जीवाणु से होते हैं । वर्तमान में बर्ड फ्लू नामक रोग से भी इस व्यवसाय पर प्रभाव पड़ा है ।
रोगों से बचाव:
i. रोगों से सुरक्षा के लिए चूजों का टीकाकरण करवा देना चाहिए ।
ii. कुक्कुट शाला की नियमित सफाई होना चाहिए ।
iii. कीटनाशी दवा का छिड़काव करना चाहिए ।
iv. रोगग्रसित मुर्गी को अलग कर देना चाहिए ।
मत्स्यपालन (Fisheries):
बड़े स्तर पर मछलियों को पालना मत्स्यपालन कहलाता है । मछलियों का महत्व माँस, चर्बी, तेल एवं खाद के रूप में अधिक है । यह एक महत्वपूर्ण प्रोटीन युक्त भोजन है । शार्क तथा कॉड जैसी मछलियों का तेल विटामिन ‘डी’ का अच्छा स्रोत है । मछलियाँ समुद्री जल, नदी, तालाब, झील आदि से पकड़ी जाती हैं । कुछ तालाबों को मत्स्य उत्पादन तालाब के रूप में विकसित किया जाता है ।
मत्स्यपालन का मुख्य उद्देश्य विभिन्न खाने योग्य देशी, विदेशी मछलियों को उचित मात्रा एवं अनुपात में संचित करके तथा तालाब में कार्बनिक खादों एवं पूरक आहार का प्रयोग करते हुए एक सीमित समय में अधिक से अधिक मत्स्य उत्पादन सुनिश्चित करना है । प्रजनन तथा संकरण विधि द्वारा कम अवधि में तीव्रता से वृद्धि करने वाली नस्लों का विकास किया गया है ।
मछलियों की प्रमुख प्रजातियाँ:
आवास के आधार पर मछलियों को दो वर्गों में बाँटा गया है:
(1) लवणीय जल वाली अथवा समुद्री मछलियाँ- हिस्सा, सार्डिन, सालमन, कैटफिश, बाम्बे डक आदि ।
(2) अलवणीय जल वाली अथवा नदी-तालाब की मछलियाँ- कतला, तारिका, मृगला, सिंघरा, रोहू, लोबियो, भाली, कालबासु आदि ।
बड़े स्तर पर मछलियों का पालन तालाब में किया जाता है । यहाँ इन्हें उचित मत्स्य आहार दिया जाता है । इनमें प्रकाश एवं ऑक्सीजन की भी पर्याप्त व्यवस्था होती है । तालाब की स्वच्छता तथा रखरखाव अति आवश्यक होती है । तालाब में अनावश्यक पौधों को नष्ट कर देना चाहिए । अनावश्यक जीव-जन्तु तथा अवांछनीय मछलियों की सफाई कर देना चाहिए ।
मधुमक्खी पालन (Bee Keeping):
हमें मधुमक्खी से शहद प्राप्त होता है । शहद का उपयोग दवा के रूप में किया जाता है । शहद में शर्करा, एन्जाइम्स, खनिज एवं जल उपस्थित रहता है । यह सुपाच्य होता है । इसका उपयोग खाँसी जैसे कुछ सामान्य रोगों में भी किया जाता है ।
शहद का उत्पादन:
आपने पुरानी इमारतों एवं बड़े वृक्षों पर मधुमक्खी के छत्ते देखें होगे एवं उनसे शहद निकालते भी देखा होगा । व्यावसायिक रूप से मधुमक्खी पालन ऐसे स्थानों पर किया जाता है जहाँ पर फूल अधिक मात्रा में पाए जाते हैं । इन बगीचों में स्थान-स्थान पर डिब्बे रख दिए जाते हैं जिनमें कृत्रिम छत्ते होते हैं ।
मधुमक्खियों को विशेष बक्सों में भी पाला जाता है । इसे मौन पालन कहते हैं । मधुमक्खियाँ बॉक्स के फ्रेम में मधुकोश का निर्माण करती हैं । इनकी सारी गतिविधियाँ बक्से तक ही सीमित रहती हैं । रानी मक्खी अंडे देती है जिनका लार्वा के रूप में विकास होता है ।
लार्वा प्यूपा बनाते हैं । लार्वा तथा प्यूपा दोनों ही की देखभाल श्रमिक मक्खी करती हैं । मधुमक्खी फूलों का रस चूस कर उसे मधु (शहद) में परिवर्तित कर देती हैं । शहद निकालने का कार्य मशीनों द्वारा किया जाता है (चित्र- 14.22) ।