Here is an essay on ‘Farming’ for class 6, 7, 8, 9, 10, 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘Farming’ especially written for school and college students in Hindi language.
बहुत-सी वनस्पतियाँ स्वाभाविक रूप से उगती हैं और बढ़ती है । जंगलों में वनस्पतियों के बीजों का प्रसार तो स्वाभाविक रूप से होता रहता है । कुछ वृक्षों पर लगे फल पकने के बाद सूखकर तड़कते हैं ।
तड़कने के बाद उनके बीज पवन, पानी और प्राणियों द्वारा इधर-उधर बिखेर दिए जाते हैं । अनुकूल परिस्थिति में ये बीज जमीन पर उगते हैं और उनका रूपांतरण वृक्षों में होता है । बरगद, पीपल आदि वृक्षों का प्रसार पक्षियों की विष्ठा के माध्यम से होता है ।
जानवरों के मल-मूत्र, उनके मृत शरीर के अवशेष, वनस्पतियों से निर्मित खर-पतवार इत्यादि जब जमीन में दब जाते हैं, तब उनके द्वारा जमीन को कार्बोनिक खाद मिलती है । इस विधि से उपजाऊ होनेवाली जमीन में बीज अपने आप उगते हैं, बढ़ते हैं । वर्षा का पानी उनकी वृद्धि में सहायक होता है । प्रकृति स्वयं ही इन वनस्पतियों की सुरक्षा तथा पालन-पोषण करती है ।
मनुष्य ने प्रकृति का निरीक्षण करके खेती करना प्रारंभ किया । पृथ्वी के पृष्ठभाग पर एक समय घने जंगल थे । मनुष्य ने इन जंगलों को काटकर अपने उपयोग के लिए जमीन खाली कर ली । वनस्पतियों से भोजन मिलता है, उसकी जानकारी होने पर मनुष्य ने खेती करना शुरू किया और विभिन्न वनस्पतियों को उगाकर अपने लिए भोजन का प्रबंध किया । उसी के साथ- साथ वनस्पतियों का अध्ययन करके कृषि विज्ञान की आधारशिला रखी । वनस्पतियों से अधिक-से-अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए उसने कृषि विज्ञान का समुचित विकास किया ।
खाद्यान्नों के लिए खेती:
वर्तमान समय में खेती की उपज के रूप में चावेल, गेहूं, ज्वार, बाजरा, मक्का, मकरा आदि मुख्य अनाज प्राप्त किए जाते है । चने, मूँग, उड़द, अरहर, मसूर तथा मोठ जैसे दलहनों की भी खेती की जाती है । तेल प्राप्त करने के लिए मूंगफली, तिल, सूर्यमुखी, बर्र, अलसी, सोयाबीन जैसी तेलहनों की वनस्पतियों की भी रोपाई की जाती है ।
ग्वार, टमाटर, बैगन, परवल, करेला, चकवढ, मेथी, गाँठगोभी, अरवी जैसी फलवाली तथा पत्तीवाली सब्जियाँ प्राप्त करने के लिए सिंचित फसलें उगाई जाती हैं । इसी के साथ-साथ आम, अमरूद, चीकू, कटहल, संतरे, अनार, केले आदि फलों का उत्पादन किया जाता है ।
फूलों की माँग अधिक होने के कारण फूलों की खेती को भी महत्व प्राप्त हों गया है । इसके अंतर्गत रजनीगंधा, गुलाब, गेंदा, शेवंती और कुछ विदेशी फूलों की भी खेती की जा रही है । औषधि के रूप में वनस्पतियों की उपयोगिता को ध्यान में रखकर औषधीय वनस्पतियों का भी उत्पादन किया जाता है । उदाहरण, सर्पगंधा, गुड़मार, शतावरी । इसके अतिरिक्त धागे के लिए पटसन, सनई, कपास इत्यादि की भी खेती की जाती है ।
पृथ्वी पर ईंधनों के भंडार सीमित हैं । इसलिए ऊर्जा के अपारंपरिक स्रोत के रूप में जंगली भिंडी, शिरीष, जाट्रोपा जैसी कुछ वनस्पतियों का उपयोग किया जाता है । इसलिए इन वनस्पतियों को भी उगाया जा रहा है । इसे ‘ईंधन खेती’ कहते हैं । इनकी लकड़ी से और गन्ने की खोई (सीठी) से भी ईधन प्राप्त किए जाते है ।
व्यापारिक स्तर पर इन वनस्पतियों का उत्पादन करते समय पौधशाला में इन वनस्पतियों का भी वर्धन करते हैं । बाद में वनस्पतियों की पौध को उपयुक्त स्थान पर रोपित कर देते हैं । पौधशाला और कृत्रिम पुष्पखेती के लिए पौधाघरों का उपयोग किया जाता है । वृक्षों की अनियंत्रित एवं अंधाधुंध कटाई करने के कारण आजकल वृक्षों के रोपण के विचार को महत्व दिया जा रहा है । इसलिए सांगौन, नीलगिरि तथा जंगली बबूल के वृक्षों का रोपण किया जा रहा है ।
कृषिकार्य:
फसलों से अधिक-से-अधिक उपज प्राप्त करने के लिए खेती के कामों में जमीन की उत्तम तैयारी, उत्तम किस्म के बीज की बोआई तथा खादों का उपयोग, फसलों का सही संरक्षण और अनाजों का उत्तम भंडारण जैसे कामों का समावेश होता है । हमारे देश में छोटे स्तर पर पारंपरिक विधि से और व्यापारिक स्तर पर आधुनिक विधि से खेती की जाती है ।
कृषि कार्य में निम्नलिखित सोपानों का विशेष महत्व है:
जमीन की तैयारी:
खेती के काम अर्थात कृषिकार्य में जमीन की तैयारी का विशेष महत्व है ।
इस तैयारी के तीन महत्वपूर्ण सोपान हैं:
(i) बोआई के पूर्व परिश्रम
(ii) बोआई का परिश्रम तथा
(iii) अनंतरीय परिश्रम ।
(i) बोआई के पूर्व परीश्रम:
बोआई के पूर्व की तैयारी में जमीन की जोताई हेंगाने (समतल करने) का समावेश होता है । जोताई द्वारा जमीन के ऊपरी कठोर तथा ठोस परत की एक निश्चित गहराई तक खोदाई की जाती है । इससे वहाँ की मिट्टी भुरभुरी हो जाती है । मिट्टी भुरभुरी होने से फसलों को कई लाभ होते है ।
गहरी जोताई से मिट्टी की ऊपरी परत नीचे और निचली परत ऊपर चली जाती है । इसे ही परतों की उलटापलटी कहते हैं । इसके कारण मिट्टी भुरभुरी हो जाती है, जिससे फसलें अच्छी तरह बढ़ती हैं । अपतृणों को चुनने में भी सुविधा होती है । पहले उगाई गई फसलों के बचे हुए भाग तथा जडें ढीली हो जाती हैं । उन्हें निकालकर जमीन को समतल किया जाता है ।
इससे जमीन बोआई के लिए उपयुक्त हो जाती है । मिट्टी भुरभुरी होने से उसमें समाविष्ट कटिक तथा जंतु उघड़ जाते हैं तथा गरमी के कारण मर जाते है । साथ-साथ मिट्टी में हवा के मिश्रित हो जाने से यह अंदर तक पहुँच जाती है ।
वनस्पतियों का अच्छी तरह श्वसन होता है और जड़ें तेजी से बढ्कर गहराई तक जाती हैं । मिट्टी भुरभुरी होने के कारण वर्षा अथवा सिंचाई का पानी बहता नहीं बल्कि भुरभुरी मिट्टी में आसानी से रिसता है । फलत: मिट्टी की जलधारक क्षमता बढ़ती है ।
(ii) बोआई का परिश्रम:
बोआई के पहले की तैयारी करने के बाद, जमीन की बोआई के लिए तैयारी की जाती है । इसमें मिट्टी की रचना, बीज की बोआई अथवा पौध की रोपाई का समावेश होता है ।
(a) मिट्टी की रचना:
मिट्टी की रचना (बनावट या गठन) में हल तथा हेंगे का उपयोग किया जाता है । इसके अतिरिक्त ली जानेवाली फसल के लिए जो उपयुक्त हो, उसी प्रकार की मिट्टी की रचना की जाती है । इसमें बरहा बनाने, मेंड़ें बनाने तथा क्यारियाँ बनाने का समावेश होता है ।
(b) बोआई:
मिट्टी की रचना हो जाने के बाद बोआई की जाती है । बोआई अलग-अलग विधियों से की जाती है । जैसे, बीज को तैयार खेत की मिट्टी में छींटकर, बीजों को अलग-अलग कूँड़ों में डालकर अथवा बीज से तैयार किए गए पौधों की रोपाई करके । धान जैसी फसल को उसकी तैयार की गई बेहन की रोपाई द्वारा पैदा करते है ।
इसके लिए खेत की मुलायम मिट्टी की परत बनाकर कीचड़युक्त क्यारियाँ तैयार करते हैं । उसके लिए पहले से ही कीचड़युक्त क्यारियों में बेहन तैयार करते हैं । खेत में बरहा बनाकर गन्ने की बोआई की जाती
है । भिंडी भी बरहों में लगाते हैं जबकि पत्तीवाली सब्जियाँ क्यारियों में । बीजों को जमीन में खोंसकर भी बोआई की जाती है । इसे ‘बेधन विधि’ कहते हैं । कपास की कुछ किस्मों, कुम्हड़े, करेले तथा तरबूज आदि के बीजों को बेधन विधि से ही बीते हैं ।
(c) अंतरीय परिश्रम:
बोए के गए बीज के अंकुरित होने अर्थात उगने के कुछ दिनों बाद अनंतरीय परिश्रम प्रारंभ किए जाते हैं ।
अनंतरीय परिश्रम में:
(i) विरलन
(ii) निराई
(iii) खाद-पानी देना तथा
(iv) औषधि फुहारना जैसी चार मुख्य क्रियाओं का समावेश होता है ।
ये क्रियाएँ एक निश्चित समय पर ही करना महत्वपूर्ण होता है ।
(i) विरलन:
अनंतरीय परिश्रम का एक महत्वपूर्ण चरण पौधों का विरलन हे । विरलन की क्रिया में एकदम पास-पास अर्थात सघन रूप में ओ पौधों में से कुछ पौधे उखाड़कर फेंक देते हैं । इस क्रिया से बचे हुए पौधों को पर्याप्त खाद और पानी मिलता है और वे तेजी से बढ़ते हैं । विरलन क्रिया करते समय यदि पौधों की जड़ें दिखाई देती हों, तो उन्हें मिट्टी डालकर ढँक देते है ।
(ii) निराई:
विरलन क्रिया के बाद खुरपी से निराई की जाती है । पौधों के साथ उगे हुए अपतृणों को खुरपी से खोदकर बाहर फेंक देते हैं । निराई करने से पौधों की जड़ों के पास हवा का आसानी से आना-जाना होता है ।
(iii) खाद-पानी देना:
बढ़ती हुई फसल को एक निश्चित समय पर पानी दिया जाता है और खाद की उचित मात्रा दी जाती है । फसलों को खाद देने के संबंध में विशेष रूप से तज्ञ व्यक्ति की सलाह लेना उपयोगी सिद्ध होता है । खादी तथा पानी का अत्यधिक उपयोग करना फसलों के लिए हानिकारक होता है । फसलों को प्राय: पुरवट जैसी पारंपरिक विधि से पानी देते हैं । इसमें पानी व्यर्थ चला जाता है । आधुनिक विधियों में तुषार सिंचन तथा टपक सिंचन द्वारा पानी दिया जाता है । इनसे पानी की बचत होती है ।
(iv) औषधि फुहारना:
फसलों की सुरक्षा के लिए खाद-पानी का तो काफी महत्व है परंतु यदि फसलों में कीड़े लग गए हों अथवा उनमें रोग लग गया हो, तो उपज में बड़ी मात्रा में कमी हो जाती है क्योंकि उसका विनाश होता है । इसलिए फसलों की सुरक्षा के लिए उन पर कीटक-फफूंदी का विनाश करनेवाले कीटकनाशक छिड़के जाते हैं । कीटकों के उपद्रव या कीटक-फफूँदी नाशक औषधियों को फुहारने से फसलों पर रोग नहीं लगते । ये रोग ‘प्रतिबंधक’ हैं परंतु फसलों में कीड़े या कीटक-फफूँदी लग जाने पर किए गए छिड़काव (फुहार) को ‘उपचार’ कहते हैं ।
फसलों पर औषधियों के छिड़काव में पर्याप्त तथा अपेक्षित सावधानी रखी जानी चाहिए । आवश्यकता से अधिक औषधियों का उपयोग करने पर फसल की मिट्टी पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है तथा कालांतर में वह जमीन अनुपजाऊ हो जाती है ।
कटाई, मड़ाई तथा अनाज का भंडारण:
खेत में बोई गई फसल तैयार होने के बाद सही समय पर उसकी कटाई की जाती है । ऐसा करने पर अधिक-से-अधिक अनाज मिलता है । ज्वार, बाजरा तथा मक्का जैसे अनाजों के भुट्टे, धान की बालियाँ तथा गेहूँ की बालियाँ आदि फसल के तैयार होने के बाद कटाई करके खलिहान में लाते हैं ।
वहाँ पर बैलों अथवा मड़ाईयंत्र की सहायता से फसल की मड़ाई की जाती है । मड़ाई द्वारा भुट्टों या बालियों के दाने बाहर आ जाते है । इसके बाद अनाज की ओसाई की जाती है । ओसाई द्वारा दानों पर चिपके छिलके तथा भूसा आदि कचरा अलग हो जाता है और अनाज स्वच्छ हो जाता है ।
इस प्रकार प्राप्त अनाज के लिए यह आवश्यक है कि वह पर्याप्त समय तक के लिए खाने लायक बना रहे । इसके लिए अनाज को पूर्णत: सुखाने के बाद ही उसका सुरक्षित भंडारण करते हैं । अनाज के भंडारण के लिए प्राय: पतरे अथवा सीमेंट-कंक्रीट से निर्मित बखारों तथा मिट्टी से बने पक्के-कच्चे कुठिलों का उपयोग करते हैं ।
चूहों, मूसों, घुन तथा पई आदि के प्रवेश को रोकने के लिए भी उपयुक्त प्रबंध किए जाते हैं । इन भंडारण पात्रों को सीलनयुक्त या गीली जगह पर न रखकर सूखे स्थानों पर रखा जाता है । इससे अनाजों की कीड़ों, फफूँदियों आदि से सुरक्षा होती है ।
अनाज के संरक्षण के लिए नीम की सूखी पत्तियों अथवा विशिष्ट रसायनों का भी उपयोग किया जाता है । इनके कारण कीड़ों, चीटियों तथा धुन आदि से अनाज का बचाव होता है । चावल का भंडारण करते समय दानों के छिलके नहीं निकाले जाते ।
खेती के काम में उपयोगी औजार तथा साधन:
खेती के काम में उपयोगी औजार तथा साधन खेती के काम में कई प्रकार के औजारों तथा साधनों का उपयोग करते हैं । साथ-साथ खेती के औजारों को चलाने में प्राय: बैल, घोड़े, भैंसे तथा ऊँट इत्यादि जानवरों का उपयोग किया जाता है ।
औजारों की देखभाल:
खेती के काम में उपयोगी औजारों का प्रतिदिन उपयोग होता रहता है । इसलिए इनकी देखभाल करनी पड़ती है । इन औजारों का सदैव मिट्टी तथा पानी से संपर्क होता रहता है । अत: काम करने के बाद उन्हें तुरंत साफ करके ही रखना चाहिए । उन्हें नियमित रूप से तेलपानी देना चाहिए ।
उनपर धार लगवाते रहना चाहिए जिससे वे अधिक समय तक कार्यक्षम बने रहें । औचारों को गीली तथा नम जगहों पर न रखें । ऐसा करने पर लकड़ी के औजारों में दीमकें लग जाती है और लोहे के औजारों में जंग लग जाती है । जंग लगने या दीमक लगने से औजारों की आयु घट जाती है ।